Virendra Singh Chaun
भारत का संविधान हालांकि धार्मिक ‘अल्पसंख्यक’
की परिभाषा पर मौन है मगर हमारे संविधान और कानून में
अल्पसंख्यकों के संरक्षण और सशक्तिकरण के पर्याप्त प्रावधान मौजूद हैं। संविधान की
मूल भावना के अनुरूप ही 1992 में तत्कलीन
केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम बनाया।इस कानून के अंतर्गत
अगले ही बरस राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अस्तित्व में भी आ गया। आयोग ने मुसलमानों,बौद्धों,सिखों और ईसाइयो
को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया हुआ है। परंतु देश के कई अन्य
जनकल्याणकारी कानूनों की ही भांति भारतीय संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय अल्पसंख्यक
आयोग अधिनियम और उसके तहत बने आयोग का लाभ जम्मू कश्मीर के अल्पसंख्यकों को आज तक
हासिल नहीं है। जम्मू कश्मीर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के दायरे से आज भी बाहर है
और न ही राज्य का अपना कोई राज्य अल्पसंख्यक आयोग आज तक गठित हुआ है। राज्य के अल्पसंख्यकों को इस
अमानवीय वंचना का शिकार बनाने के लिए आखिर कौन उत्तरदाई है ?
इस सवाल
का जवाब तो सीधा है पर इस समस्या का समाधान सरल नहीं। दरअसल
रक्षा, संचार और विदेश मामलों से संबन्धित कानूनों को छोड़कर किसी भी
केन्द्रीय कानून को जम्मू-कश्मीर में लागू करने के लिए पहले राज्य सरकार की अनुमति
चाहिए। और अनेक अन्य कानूनों की तरह जम्मू कश्मीर
की किसी भी निर्वाचित राज्य सरकार ने आज तक राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम को
राज्य में लागू करने के लिए अपनी सम्मति प्रदान करने की पहलकदमी नहीं की। यह सहमति
भारतीय संविधान के अस्थायी उपबंध अनुच्छेद 370 के कारण जरूरी है। अभिप्राय यह है कि अनुच्छेद 370 रूपी बाधा के कारण जम्मू-कश्मीर के अल्पसंख्यक, जिनमे कि सिख भी शामिल हैं, देश के अन्य भागों में अल्पसंख्यकों को उपलब्ध अनेक अधिकारों और सुविधाओं
से से वंचित हैं। इसके चलते यह भी सच है कि मौजूदा
परिस्थिति में उनके साथ यदि कोई अन्याय या उत्पीड़न की घटना हो जाए तो कायदे से
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग उनकी मदद के लिए हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं
होगा चूंकि आयोग के क्षेत्राधिकार से जम्मू-कश्मीर आज भी बाहर है।
राज्य के
अल्पसंख्यक अपने साथ हो रही इस ज्यादती के खिलाफ अब तक हर संभव द्वार पर दस्तक दे
चुके हैं। इनमें सिख समुदाय सर्वाधिक मुखर नजर आता है। राज्य के अल्पसंख्यक सिखों
की ओर से बीते बरसों के दौरान एक के बाद एक कई मुख्यमंत्रियों के दरवाजे खटखटाए गए,
मगर कुछ हासिल नहीं हुआ। और इसी तरह उन्होंने दिल्ली में
सत्ता और प्रतिपक्ष सब के द्वार पर भी खूब दस्तक दे कर देख ली। संवैधानिक अधिकारों
को हासिल करने की इस जद्दोजहद में आज तक कोरे आश्वासनों के सिवा उन्हें कुछ हासिल
नहीं हुआ। अल्पसंख्यक सिख
समुदाय से ताल्लुक रखने वाले प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह से तो सिखों को बहुत
खासी उम्मीद थी। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के नाते दो बार राज्य के दौरे पर जा
चुके हैं। दोनों बार कश्मीर के सिख समुदाय के प्रतिनिधिमंडल ने उन से मुलाकात कर
अपनी पीड़ा सुनाई। उनका ज्ञापन भी प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया। मगर कटुतम सत्य है
कि तक उनकी और से किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप की कोई खबर श्रीनगर तक नहीं पंहुची।
इस सिलसिले में आल पार्टीज सिख कोर्डिनेशन कमेटी के समन्वयक सरदार जगमोहन सिंह
रैना कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर के सिख समुदाय की आवाज को जिस तरह से अनसुना किया
जा रहा है, वह बहुत दर्दनाक है। बकौल रैना राज्य
के सिख समुदाय ने सदैव राज्य में राष्ट्रवाद का तिरंगा थामे रखा है। आतंकवाद के
चरम के समय में भी सिखों ने कश्मीर घाटी को नहीं छोड़ा। सुरक्षा के लिए ग्रामीण
इलाकों में अपने घर-जमीन-बागान छोडकर वे शहरों में जरूर आए, मगर घाटी छोडने के लिए राजी नहीं हुये। परंतु श्रीनगर और दिल्ली की
सरकारों ने इनकी इस बहादुरी और देशभक्ति को कभी कोई अहमियत नहीं दी। गाँव में छूट
गयी उनकी संपत्ति के एवज में उन्हें कोई मुआवजा दिया जाए, इसका विचार किसी राज्य या केंद्र सरकार ने नहीं किया। संरक्षण के अभाव में
सिखों की मातृभाषा पंजाबी की भी जमकर उपेक्षा हो रही है। मसलन किसी जमाने में घाटी
के अनेक कालेजों में पंजाबी का पठन-पाठन होता था। अब यह सिमट कर एक या दो
संस्थानों तक सीमित हो गया है। कश्मीर विश्वविद्यालय में ऐसी कई भाषाओं के विभाग तो
होंगे जो राज्य में बोली नहीं जाती मगर, पंजाबी का
विभाग आज तक स्थापित नहीं हुआ। कहा जा रहा है कि इसी प्रकार की कई छोटी-बड़ी
वेदनाओं का निराकरण स्वतः हो जाता अगर अल्पसंख्यक आयोग के रूप में अलपसंख्यक सिखों
के पास एक ऐसा ठिकाना होता जहां जाकर वे अपनी बात कह सकें।
जगमोहन सिंह रैना के ही नेतृत्व में
जम्मू-कश्मीर के सिखों का एक प्रतिनिधिमंडल बीते दिनों दिल्ली में राष्ट्रपति
प्रणव मुखर्जी से भी मिला था। रैना और उनके साथियों का कहना है अब भी सरकार नहीं
जागी तो जम्मू-कश्मीर के सिखों व दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों के पास आंदोलन का
रास्ता अख्तियार करने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचेगा। इस संबंध में राज्य के सभी
धार्मिक अल्पसंख्यकों को एक मंच पर लाने के प्रयास भी जारी हैं।
इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि
जम्मू-कश्मीर के अपने संविधान में कहीं भी राज्य के अल्पसंख्यकों के संरक्षण या
पोषण का कोई प्रावधान मौजूद नहीं है। अभिप्राय यह कि राज्य के संविधान में
अल्पसंख्यक वर्गों के कल्याण के लिए कुछ व्यवस्था है नहीं और भारत की संसद ने इस
लिहाज से जो कानून पारित किया है वह राज्य में आज तक लागू नहीं किया गया। ऐसे में
अल्पसंख्यकों का खुद को आहत और उपेक्षित महसूस करना स्वाभाविक है। एक अनुमान के
मुताबिक करीब 74000 सिख कश्मीर घाटी
के 11 जिलों के लगभग 126 गाँव में रहते हैं। इसके इनके अलावा राज्य में बौद्ध और ईसाई
अल्पसंख्यक भी हैं, जो इसी प्रकार
केन्द्रीय कानून और उसके तहत बने आयोग के लाभ और संरक्षण से वंचित है।
जम्मू-कश्मीर
सरकार जैसे अनुच्छेद 370 का सहारा लेकर आज तक राज्य के
ग्रामीण अंचल को भारतीय संविधान के 73 वें संशोधन के
लाभों अर्थात शेष भारत में लागू पंचायती राज व्यवस्था से वंचित रखे हुये है,
कुछ वैसा ही वह अल्पसंख्यकों के मामले में भी कर रही है।
73 वें संशोधन का जिक्र आते ही मुख्यमंत्री
उमर अब्दुल्ला भड़क उठते हैं। लोगों का बहुत दबाव पड़ता है तो वे जम्मू कश्मीर के
पंचायती राज कानून में 73 वें संशोधन जैसे
बदलाव करने का सियासी झुनझुना थमाकर आगे बढ़ जाते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के
मामले में भी अकसर यह कह दिया जाता है कि बजाय केन्द्रीय कानून लागू करने के राज्य
अपना ही अलग कानून बनाना चाहता है। विशेषज्ञों को इस दाल में भी कुछ काला दिखाई
देता है। उनका कहना है कि केन्द्रीय कानून को लागू करने में उमर या दूसरे किसी भी
राजनीतिक दल के हाथ शायद इसलिए भी काँपते हों कि उसके लागू होने के बाद राज्य में
बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी को कई मामलों में राज्य में अल्पसंख्यक होने का लाभ नहीं
मिलेगा। ध्यान रहे कि राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक होते हुये भी सिखों को विभिन्न
मामलों में पंजाब में यह दर्जा हासिल नहीं है चूंकि पंजाब में वे आबादी के हिसाब
से अल्पसंख्यक नहीं है। उदाहरण के तौर पर शिक्षण संस्थानों के अल्पसंख्यक-संस्थान
दर्जे का सवाल हो तो सर्वोच्च न्यायालय निर्णय के अनुसार राज्य में उक्त समुदाय की
आबादी के आधार पर इसका निर्धारण होगा। ऐसे में जम्मू कश्मीर के मुसलमानों को भी
प्रदेश में बहुसंख्यक होने के कारण कुछ लाभों से वंचित होना पड़ेगा।
संभवतः
राज्य के बहुसंख्यक समाज के भय, दबाव अथवा
उसे प्रसन्न रखने की राजनीतिक मजबूरी के चलते ही अल्पसंख्यकों को उनके संवैधानिक
अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। राज्य के धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ न्याय हो,
यह सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार को
स्पष्ट और कड़ा स्टैंड लेना होगा। और दिल्ली का निर्णय वोट बैंक की राजनीति से
प्रभावित न होकर विशुद्ध मानवीय और संवैधानिक तत्वों पर आधारित हो, तभी इस पेचीदा मामले में वास्तविक न्याय संभव हो सकेगा। और
हाँ, ये तो साफ दिख ही रहा है कि संविधान
का अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर के लोगों का, वे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक, कोई भला नहीं कर रहा। वह एक बाधक और अवरोधक उपबंध की भूमिका
में खड़ा है।
(Author is a senior
journalist and an expert on Jammu Kashmir Issues)
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